Saturday, April 20, 2013

सोचती हूँ आज अपने को जान लूँ!




सोचती हूँ आज अपने को जान ही लूँ,
दिमाग का वो कोना जो कभी मेरी बात नहीं सुनता
और सुनता भी है तो बड़ी मुश्किल से;

दिल का वो हिस्सा जो सोच, समझ से परे
भावनाओं के माया जाल में उलझा रहता है;

शीशे में कभी मुझे पलट कर देखता वो चेहरा
जिससे शायद मैं कभी मिली ही न हूँ;

ज़िन्दगी के अनजान मोड़ पर टकराया वो अजनबी
जो कहाँ से आया मुझे खबर ही नहीं;

एक छोटी सी आवाज़ कहीं दूर से आती हुई
अपने कन्धों पर समझदारी का बोझ लिए हुए;

विचारों की वो फ़ौज जो अक्ल का बांध तोड़
मुझ पर हावी होना चाह्ती है;

कभी मचलता, ललचाता मन
जो संतुष्टी का संतुलन खो,
अपने पैर डगमगाने लगता है;

और रौशनी से छिपती
वक़्त के अँधेरे में लम्बी होती वो परछाई,
जो मुझे अपने आप से कभी बड़ी लगती है;

सोंचती हूँ जान लूँ आज इन सब को
जो मिले फिर दोबारा
तो मिले अबकी दोस्त बनकर!


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Note - Originally penned on 17th April 2013
Note 2 - Picture courtesy - Google Images 

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