सोचती
हूँ आज अपने को जान ही लूँ,
दिमाग
का वो कोना जो कभी मेरी बात नहीं सुनता
और
सुनता भी है तो बड़ी मुश्किल से;
दिल
का वो हिस्सा जो सोच, समझ से परे
भावनाओं
के माया जाल में उलझा रहता है;
शीशे
में कभी मुझे पलट कर देखता वो चेहरा
जिससे
शायद मैं कभी मिली ही न हूँ;
ज़िन्दगी
के अनजान मोड़ पर टकराया वो अजनबी
जो
कहाँ से आया मुझे खबर ही नहीं;
एक
छोटी सी आवाज़ कहीं दूर से आती हुई
अपने
कन्धों पर समझदारी का बोझ लिए हुए;
विचारों
की वो फ़ौज जो अक्ल का बांध तोड़
मुझ
पर हावी होना चाह्ती है;
कभी
मचलता, ललचाता मन
जो
संतुष्टी का संतुलन खो,
अपने
पैर डगमगाने लगता है;
और
रौशनी से छिपती
वक़्त
के अँधेरे में लम्बी होती वो परछाई,
जो
मुझे अपने आप से कभी बड़ी लगती है;
सोंचती
हूँ जान लूँ आज इन सब को
जो
मिले फिर दोबारा
तो
मिले अबकी दोस्त बनकर!
****************
Note - Originally penned on 17th April 2013
Note 2 - Picture courtesy - Google Images
Note 2 - Picture courtesy - Google Images
No comments:
Post a Comment